शिवमहिम्न स्तोत्र

शिवमहिम्न स्तोत्र

शिवमहिम्न स्तोत्र (संस्कृत: श्रीशिवमहिम्नस्तोत्रम्) Translation " Śrī śivamahimnastōtram". शिव महिम्न का अभिप्राय शिव की महिमा से है। यह एक अत्यंत ही मनोहर शिव स्तोत्र है। शिवभक्त श्री गंधर्वराज पुष्पदंत द्वारा अगाध प्रेमभाव से ओतप्रोत यह शिवस्तोत्र भगवान शिव को बहुत प्रिय है। महिम्नस्तोत्र में कहा गया है-- स्तोत्रेण किल्बिषहरेण हरप्रियेण। हर अर्थात् शिव तभी तो शिव तथा विष्णु दोनो एक साथ हो तो हरिहर कहलाते हैं। इस पंक्ति का अर्थ है कि हर प्रकार के पापों को समन करने वाला यह स्तोत्र भगवान शिव को अतिप्रिय है। यह स्तोत्र साक्षात् शिवस्वरूप है तथा शिवभक्तों के मध्य अत्यंत प्रचलित हैं।

इस स्तोत्र के निर्माण पर एक अत्यंत ही रोचक कथा प्रचलित है। एक समय की बात है जब चित्ररथ नामक शिवभक्त राजा हुए जिन्होंने अपने राज्य में कई प्रकार के पुष्पों का एक उद्यान बनवाया, वह शिवपूजन के लिये पुष्प वहीं से ले जाते थे। महान् शिवभक्त गंधर्व पुष्पदंत देवराज इंद्र की सभा के मुख्य गायक थे, एक दिन उनकी नजर उस सुंदर उद्यान पर पड़ी और वह मंत्रमुग्ध हो गए, उन्होंने उसी उद्यान से पुष्प तोड़े तथा प्रस्थान किया। मायावी गंधर्व पर किसी की नजर नहीं पड़ी पर जब राजा को इसका पता चला तो उसने चोर को पकड़ने के कई असफल प्रयास किए। राजा को एक तरकीब सूझी उसने शिव पर अर्पित पुष्प आदि उद्यान के पथ पर बिछा दिया। अगले दिन जब पुष्पदंत वहाँ आए तो उनकी नजर उन शिव निर्माल्य वस्तुओं पर नहीं पड़ी जिससे उनके पद ही उनपर पड़ गए। गंधर्वराज को शिव के क्रोध का भाजन करना पड़ा तथा उनकी सारी शक्तियाँ समाप्त हो गईं। जब उनको अपनी भूल का आभास हुआ तब उन्होंने एक शिवलिंग का निर्माण कर उसकी पूजा की तथा प्रार्थना के लिये कुछ छंद बोले, शिव प्रसन्न हुए, उनकी शक्तियाँ लौटा दी तथा यह आशीर्वाद दिया कि उनके द्वारा उच्चारित छंद समूह भविष्य में शिवमहिम्नस्तोत्र के नाम से प्रचलित होगा तथा उनके हृदय में स्थान प्राप्त करेगा और पुष्पदंत द्वारा बनाया गया शिवलिंग पुष्पदंतेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध होगा जिसके दर्शन मात्र से पाप कटेगा।

इस प्रकार शिवमहिम्न स्तोत्र की रचना हुई।

स्तोत्र तथा भावार्थ

शिवमहिम्न स्तोत्र में 43 श्लाेक हैं, श्लाेक तथा उनके भावार्थ निम्नांकित हैं[1]--

पुष्पदन्त उवाच -

महिम्नः पारं ते परमविदुषो यद्यसदृशी।

स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्त्वयि गिरः।।

अथाऽवाच्यः सर्वः स्वमतिपरिणामावधि गृणन्।

ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।। १।।

भावार्थ: पुष्पदंत कहते हैं कि हे प्रभु ! बड़े बड़े विद्वान और योगीजन आपके महिमा को नहीं जान पाये तो मैं तो एक साधारण बालक हूँ, मेरी क्या गिनती? लेकिन क्या आपके महिमा को पूर्णतया जाने बिना आपकी स्तुति नहीं हो सकती? मैं ये नहीं मानता क्योंकि अगर ये सच है तो फिर ब्रह्मा की स्तुति भी व्यर्थ कहलाएगी। मैं तो ये मानता हूँ कि सबको अपनी मति अनुसार स्तुति करने का अधिकार है। इसलिए हे भोलेनाथ! आप कृपया मेरे हृदय के भाव को देखें और मेरी स्तुति का स्वीकार करें।

अतीतः पंथानं तव च महिमा वांमनसयोः।

अतद्व्यावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।।

स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः।

पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।। २।।

भावार्थ: आपकी व्याख्या न तो मन, न ही वचन द्वारा संभव है। आपके सन्दर्भ में वेद भी अचंभित हैं तथा 'नेति नेति' का प्रयोग करते हैं अर्थात ये भी नहीं और वो भी नहीं। आपकी महिमा और आपके स्वरूप को पूर्णतया जान पाना असंभव है, लेकिन जब आप साकार रूप में प्रकट होते हो तो आपके भक्त आपके स्वरूप का वर्णन करते नहीं थकते। ये आपके प्रति उनके प्यार और पूज्यभाव का परिणाम है।

मधुस्फीता वाचः परमममृतं निर्मितवतः।

तव ब्रह्मन् किं वागपि सुरगुरोर्विस्मयपदम्।।

मम त्वेतां वाणीं गुणकथनपुण्येन भवतः।

पुनामीत्यर्थेऽस्मिन् पुरमथन बुद्धिर्व्यवसिता।। ३।।

भावार्थ: हे वेद और भाषा के सृजक! आपने अमृतमय वेदोंकी रचना की है। इसलिए जब देवों के गुरु, बृहस्पति आपकी स्तुति करते है तो आपको कोई आश्चर्य नहीं होता। मैं भी अपनी मति अनुसार आपके गुणानुवाद करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं मानता हूँ कि इससे आपको कोई आश्चर्य नहीं होगा, मगर मेरी वाणी इससे अधिक पवित्र और लाभान्वित अवश्य होगी।

तवैश्वर्यं यत्तज्जगदुदयरक्षाप्रलयकृत्।

त्रयीवस्तु व्यस्तं तिस्रुषु गुणभिन्नासु तनुषु।।

अभव्यानामस्मिन् वरद रमणीयामरमणीं।

विहन्तुं व्याक्रोशीं विदधत इहैके जडधियः।। ४।।

भावार्थ: आप इस सृष्टि के सृजनहार है, पालनहार है और विसर्जनकार है। इस प्रकार आपके तीन स्वरूप है – ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा आप में तीन गुण है – सत्व, रज और तम। वेदों में इनके बारे में वर्णन किया गया है फिर भी अज्ञानी लोग आपके बारे में उटपटांग बातें करते रहते है। ऐसा करने से भले उन्हें संतुष्टि मिलती हो, किन्तु यथार्थ से वो मुँह नहीं मोड़ सकते।

किमीहः किंकायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं।

किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च।।

अतर्क्यैश्वर्ये त्वय्यनवसर दुःस्थो हतधियः।

कुतर्कोऽयं कांश्चित् मुखरयति मोहाय जगतः।। ५।।

भावार्थ: मूर्ख लोग अक्सर तर्क करते रहते है कि ये सृष्टि की रचना कैसे हुई, किसकी इच्छा से हुई, किन वस्तुओं से उसे बनाया गया इत्यादि। उनका उद्देश्य लोगों में भ्रांति पैदा करने के अलावा कुछ नहीं है। सच पूछो तो ये सभी प्रश्नों के उत्तर आपकी दिव्य शक्ति से जुड़े है और मेरी सीमित बुद्धि से उसे व्यक्त करना असंभव है।

अजन्मानो लोकाः किमवयववन्तोऽपि जगतां।

अधिष्ठातारं किं भवविधिरनादृत्य भवति।।

अनीशो वा कुर्याद् भुवनजनने कः परिकरो।

यतो मन्दास्त्वां प्रत्यमरवर संशेरत इमे।। ६।।

भावार्थ: हे प्रभु, आपके बिना ये सब लोक (सप्त लोक – भू: भुव: स्व: मह: जन: तप: सत्य) का निर्माण क्या संभव है? इस जगत का कोई रचयिता न हो, ऐसा क्या संभव है?आपके अलावा इस सृष्टि का निर्माण भला कौन कर सकता है ?आपके अस्तित्व के बारे केवल मूर्ख लोगों को ही शंका हो सकती है।

त्रयी सांख्यं योगः पशुपतिमतं वैष्णवमिति।

प्रभिन्ने प्रस्थाने परमिदमदः पथ्यमिति च।।

रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां।

नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव।। ७।।

भावार्थ: हे परमपिता!!! आपको पाने के लिए अनगिनत मार्ग है – सांख्य मार्ग, वैष्णव मार्ग, शैव मार्ग, वेद मार्ग आदि। लोग अपनी रुचि के अनुसार कोई एक मार्ग को पसंद करते है। मगर आखिरकार ये सभी मार्ग, जैसे अलग अलग नदियों का पानी बहकर समुद्र में जाकर मिलता है, वैसे ही, आप तक पहुंचते है। सचमुच, किसी भी मार्ग का अनुसरण करने से आपकी प्राप्ति हो सकती है।

महोक्षः खट्वांगं परशुरजिनं भस्म फणिनः।

कपालं चेतीयत्तव वरद तन्त्रोपकरणम्।।

सुरास्तां तामृद्धिं दधति तु भवद्भूप्रणिहितां।

न हि स्वात्मारामं विषय मृगतृष्णा भ्रमयति।। ८।।

भावार्थ: आपके भृकुटी के इशारे मात्र से सभी देवगण एश्वर्य एवं संपदाओं का भोग करते हैं। पर आपके स्वयं के लिए सिर्फ कुल्हाडी, बैल, व्याघ्रचर्म, शरीर पर भस्म तथा हाथ में खप्पर (खोपड़ी)! इससे ये फलित होता है कि जो आत्मानंद में लीन रहता है वो संसार के भोगपदार्थो में नहीं फँसता।

ध्रुवं कश्चित् सर्वं सकलमपरस्त्वध्रुवमिदं।

परो ध्रौव्याऽध्रौव्ये जगति गदति व्यस्तविषये।।

समस्तेऽप्येतस्मिन् पुरमथन तैर्विस्मित इव।

स्तुवन् जिह्रेमि त्वां न खलु ननु धृष्टा मुखरता।। ९।।

भावार्थ: इस संसार के बारे में विभिन्न विचारकों के भिन्न-भिन्न मत हैं। कोई इसे नित्य जानता है तो कोई इसे अनित्य समझता है। लोग जो भी कहें, आपके भक्त तो आपको हमेंशा सत्य मानते है और आपकी भक्ति में आनंद पाते है। मैं भी उनका समर्थन करता हूँ, चाहे किसी को मेरा ये कहना धृष्टता लगे, मुझे उसकी परवाह नहीं।

तवैश्वर्यं यत्नाद् यदुपरि विरिंचिर्हरिरधः।

परिच्छेतुं यातावनिलमनलस्कन्धवपुषः।।

ततो भक्तिश्रद्धा-भरगुरु-गृणद्भ्यां गिरिश यत्।

स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति।। १०।।

भावार्थ: जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद हुआ की दोनों में से कौन महान है, तब आपने उनकी परीक्षा करने के लिए अग्निस्तंभ का रूप लिया। ब्रह्मा और विष्णु – दोनों नें स्तंभ को अलग अलग छोर से नापने की कोशिश की मगर वो सफल न हो सके। आखिरकार अपनी हार मानकर उन्होंने आपकी स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर आपने अपना मूल रूप प्रकट किया। सचमुच, अगर कोई सच्चे दिल से आपकी स्तुति करे और आप प्रकट न हों एसा कभी हो सकता है भला?

अयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरं।

दशास्यो यद्बाहूनभृत-रणकण्डू-परवशान्।।

शिरःपद्मश्रेणी-रचितचरणाम्भोरुह-बलेः।

स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहर विस्फूर्जितमिदम्।। ११।।

भावार्थ: आपके परम भक्त रावण ने पद्म की जगह अपने नौ-नौ मस्तक आपकी पूजा में समर्पित कर दिये। जब वो अपना दसवाँ मस्तक काटकर अर्पण करने जा रहा था तब आपने प्रकट होकर उसको वरदान दिया। इस वरदान की वजह से ही उसकी भुजाओं में अटूट बल प्रकट हुआ और वो तीनो लोक में शत्रुओं पर विजय पाने में समर्थ रहा। ये सब आपकी दृढ भक्ति का नतीजा है।

अमुष्य त्वत्सेवा-समधिगतसारं भुजवनं।

बलात् कैलासेऽपि त्वदधिवसतौ विक्रमयतः।।

अलभ्यापातालेऽप्यलसचलितांगुष्ठशिरसि।

प्रतिष्ठा त्वय्यासीद् ध्रुवमुपचितो मुह्यति खलः।। १२।।

भावार्थ: आपकी परम भक्ति से रावण अतुलित बल का स्वामी बन बैठा मगर इससे उसने क्या करना चाहा ? आपकी पूजा के लिए हर रोज कैलाश जाने का श्रम बचाने के लिए कैलाश को उठाकर लंका में गाढ़ देना चाहा। जब कैलाश उठाने के लिए रावण ने अपनी भूजाओं को फैलाया तब पार्वती भयभीत हो उठीं। उन्हें भयमुक्त करने के लिए आपने सिर्फ अपने पैर का अंगूठा हिलाया तो रावण जाकर पाताल में गिरा और वहाँ भी उसे स्थान नहीं मिला। सचमुच, जब कोई आदमी अनधिकृत बल या संपत्ति का स्वामी बन जाता है तो उसका उपभोग करने में विवेक खो देता है।

यदृद्धिं सुत्राम्णो वरद परमोच्चैरपि सतीं।

अधश्चक्रे बाणः परिजनविधेयत्रिभुवनः।।

न तच्चित्रं तस्मिन् वरिवसितरि त्वच्चरणयोः।

न कस्याप्युन्नत्यै भवति शिरसस्त्वय्यवनतिः।। १३।।

भावार्थ: आपकी कृपा मात्र से ही बाणासुर दानव इन्द्रादि देवों से भी अधिक ऐश्वर्यशाली बन गया तथा तीनो लोकों पर राज्य किया। हे ईश्वर ! जो मनुष्य आपके चरण में श्रद्धाभक्तिपूर्वक शीश रखता है उसकी उन्नति और समृद्धि निश्चित है।

अकाण्ड-ब्रह्माण्ड-क्षयचकित-देवासुरकृपा-

विधेयस्याऽऽसीद् यस्त्रिनयन विषं संहृतवतः।।

स कल्माषः कण्ठे तव न कुरुते न श्रियमहो।

विकारोऽपि श्लाघ्यो भुवन-भय-भंग-व्यसनिनः।। १४।।

भावार्थ: जब समुद्रमंथन हुआ तब अन्य मूल्यवान रत्नों के साथ महाभयानक विष निकला, जिससे समग्र सृष्टि का विनाश हो सकता था। आपने बड़ी कृपा करके उस विष का पान किया। विषपान करने से आपके कंठ में नीला चिन्ह हो गया और आप नीलकंठ कहलाये। परंतु हे प्रभु, क्या ये आपको कुरुप बनाता है ? कदापि नहीं, ये तो आपकी शोभा को और बढाता है। जो व्यक्ति औरों के दुःख दूर करता है उसमें अगर कोई विकार भी हो तो वो पूजा पात्र बन जाता है।

असिद्धार्था नैव क्वचिदपि सदेवासुरनरे।

निवर्तन्ते नित्यं जगति जयिनो यस्य विशिखाः।।

स पश्यन्नीश त्वामितरसुरसाधारणमभूत्।

स्मरः स्मर्तव्यात्मा न हि वशिषु पथ्यः परिभवः।। १५।।

भावार्थ: कामदेव के वार से कभी कोई भी नहीं बच सका चाहे वो मनुष्य हों, देव या दानव हों। पर जब कामदेव ने आपकी शक्ति समझे बिना आप की ओर अपने पुष्प बाण को साधा तो आपने उसे तत्क्षण ही भष्म कर दिया। श्रेष्ठ जनो के अपमान का परिणाम हितकर नहीं होता।

मही पादाघाताद् व्रजति सहसा संशयपदं।

पदं विष्णोर्भ्राम्यद् भुज-परिघ-रुग्ण-ग्रह-गणम्।।

मुहुर्द्यौर्दौस्थ्यं यात्यनिभृत-जटा-ताडित-तटा।

जगद्रक्षायै त्वं नटसि ननु वामैव विभुता।। १६।।

भावार्थ: जब संसार के कल्याण हेतु आप तांडव करने लगते हैं तब समग्र सृष्टि भय के मारे कांप उठती है, आपके पदप्रहार से पृथ्वी अपना अंत समीप देखती है ग्रह नक्षत्र भयभीत हो उठते हैं। आपकी जटा के स्पर्श मात्र से स्वर्गलोग व्याकुल हो उठता है और आपकी भुजाओं के बल से वैंकुंठ में खलबली मच जाती है। हे महादेव! आश्चर्य ही है कि आपका बल अतिशय कष्टप्रद है।

वियद्व्यापी तारा-गण-गुणित-फेनोद्गम-रुचिः।

प्रवाहो वारां यः पृषतलघुदृष्टः शिरसि ते।।

जगद्द्वीपाकारं जलधिवलयं तेन कृतमिति।

अनेनैवोन्नेयं धृतमहिम दिव्यं तव वपुः।। १७।।

भावार्थ: गंगा नदी जब मंदाकिनी के नाम से स्वर्ग से उतरती है तब नभोमंडल में चमकते हुए सितारों की वजह से उसका प्रवाह अत्यंत आकर्षक दिखाई देता है, मगर आपके शिर पर सिमट जाने के बाद तो वह एक बिंदु समान दिखाई पडती है। बाद में जब गंगाजी आपकी जटा से निकलती है और भूमि पर बहने लगती है तब बड़े बड़े द्वीपों का निर्माण करती है। ये आपके दिव्य और महिमावान स्वरूप का ही परिचायक है।

रथः क्षोणी यन्ता शतधृतिरगेन्द्रो धनुरथो।

रथांगे चन्द्रार्कौ रथ-चरण-पाणिः शर इति।।

दिधक्षोस्ते कोऽयं त्रिपुरतृणमाडम्बर विधिः।

विधेयैः क्रीडन्त्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुधियः।। १८।।

भावार्थ: आपने (तारकासुर के पुत्रों द्वारा रचित) तीन नगरों का विध्वंश करने हेतु पृथ्वी को रथ, ब्रह्मा को सारथी, सूर्य चन्द्र को दो पहिये मेरु पर्वत का धनुष बनाया और विष्णुजी का बाण लिया। हे शम्भू ! इस वृहत प्रयोजन की क्या आवश्यकता थी ? आपके लिए तो संसार मात्र का विलय करना अत्यंत ही छोटी बात है। आपको किसी सहायता की क्या आवश्यकता? आपने तो केवल (अपने नियंत्रण में रही) शक्तियों के साथ खेल किया था, लीला की थी।

हरिस्ते साहस्रं कमल बलिमाधाय पदयोः।

यदेकोने तस्मिन् निजमुदहरन्नेत्रकमलम्।।

गतो भक्त्युद्रेकः परिणतिमसौ चक्रवपुषः।

त्रयाणां रक्षायै त्रिपुरहर जागर्ति जगताम्।। १९।।

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